लोकसभा चुनाव के लिए जारी बीजेपी की पहली लिस्ट में लालकृष्ण आडवाणी की परंपरागत सीट गांधीनगर से, बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को उम्मीदवार बनाया गया है। यानी बीजेपी पहली बार लालकृष्ण आडवाणी के बिना चुनाव लड़ने जा रही है। बीजेपी के इस फैसले के बाद 91 साल के लाल कृष्ण आडवाणी के सियासी सफर को खत्म माना जा रहा है। दो सांसदों वाली पार्टी को सत्ता के सिंहासन पहुचाने वाले नींव के पत्थर आडवाणी, अटल बिहारी वाजपेयी के साथ बीजेपी के मौजूदा वजूद के सबसे बड़े शिल्पकार आडवाणी, कांग्रेस के विपरीत ध्रुव की राजनीति के सशक्त और सफल हस्ताक्षर आडवाणी, 2019 लोकसभा चुनाव के लिए बीजेपी की पहली लिस्ट जारी हुई और वो अचानक सियासत का इतिहास बन गए।
जे पी नड्डा ने भले ही बीजेपी प्रत्याशियों की पहली लिस्ट में लाल कृष्ण आडवाणी के नाम का जिक्र न किया हो, लेकिन गुजरात की जिस गांधीनगर सीट से आडवाणी 6 बार से सांसद बनते चले आ रहे हैं, वहां से बीजेपी के मौजूदा चाणक्य को उतारकर बीजेपी ने एक तरह से 91 साल के अपने सबसे उम्रदराज नेता के रिटायरमेंट का एनाउंसमेंट भी कर दिया। बीजेपी की सबसे टिकाऊ, भरोसेमंद और सुरक्षित सीटों में से एक गांधीनगर को अमित शाह के तौर पर पार्टी ने नया नेता और नई पहचान दे दी है, लेकिन आडवाणी की राजनीतिक यात्रा में इसी गांधीनगर का सबसे अहम योगदान रहा है। 2014 में पहले गांधीनगर से चुनाव लड़ने से इनकार करने के बाद आडवाणी अपनी पसंदीदा सीट से चुनाव लड़ने के लिए तैयार हो गए थे।
आडवाणी पहली बार राज्यसभा सांसद बने थे। 1970 से लेकर 1989 तक 19 साल वह राज्यसभा से ही चुने जाते रहे। 9वीं लोकसभा में 1989 में उन्होंने पहली बार नई दिल्ली से लोकसभा चुनाव जीता।1991 में 10वीं लोकसभा में उन्होंने गुजरात के गांधीनगर से चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। जैन हवाला कांड में नाम आने के बाद आडवाणी ने इस्तीफा दे दिया। उन्होंने 1996 में चुनाव नहीं लड़ने फैसला करते हुए एलान किया कि जब तक कि हवाला कांड से नाम नहीं हट जाता चुनाव लड़ेंगे। क्लीन चिट मिलने के बाद 1998 में गांधीनगर से चुनाव जीतकर फिर संसद पहुंचे। आडवाणी ने इसके बाद 1999, 2004, 2009, और 2014 में लोकसभा चुनाव जीता। इस समय वह सातवीं बार लोकसभा सांसद के रूप में सक्रिय हैं। इनमें से छह बार वह गांधीनगर सीट से ही सांसद चुने गए।
लाल कृष्ण आडवाणी का जन्म 8 नवंबर 1927 को कराची में हुआ था। 15 साल की उम्र में ही वो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ गए। अटल बिहारी वाजपेयी के सहायक के तौर पर जनसंघ में राजनीति का कामकाज देखना शुरू किया था। 1977 में बनी जनता पार्टी की सरकार में अडवाणी सूचना एवं प्रसारण मंत्री बने। अटल बिहारी वाजपेयी और मुरली मनोहर जोशी के साथ मिलकर 1980 में बीजेपी का गठन किया। 1984 के चुनाव में बीजेपी को महज 2 सीटें मिली थीं। इसके बाद आडवाणी ने हिंदुत्व के मुद्दे को राम मंदिर आंदोलन से जोड़कर पहले कांग्रेस के सामने बीजेपी को मजबूती से विपक्ष में खड़ा किया और फिर सत्ता से बेदखल कर दिया। राम मंदिर आंदोलन के दौरान सोमनाथ से अयोध्या तक की रथयात्रा करके ही आडवाणी ने पूरे देश में बीजेपी को एक अलग पहचान दिलाई थी। यही वजह थी बीजेपी 1989 में 2 से 89 सीट तक पहुंच गई, मंदिर आंदोलन के सहारे धीरे धीरे बढ़ती बीजेपी की लोकप्रियता का नतीजा 1996 की तेरह दिन और 1998 की तेरह महीनों की सरकार के तौर पर सामने आया और जब 1999 में जब बीजेपी की अगुवाई में एनडीए की पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनी तो आडवाणी की हैसियत अटल बिहारी वाजपेयी के बाद नंबर दो की थी।
आडवाणी 1998 से 2004 तक एनडीए की सरकार में गृहमंत्री रहे। 2002 से 2004 तक भारत के उपप्रधानमंत्री रहे। इंडिया शाइनिंग के नारे के बावजूद 2004 के लोकसभा चुनाव में एनडीए की हार हुई और कांग्रेस ने सत्ता में वापसी की, इसके बाद 2004 में एनडीए की हार के बाद आडवाणी नेता विपक्ष बने। 2005 में जिन्ना की मजार में जाकर उनकी तारीफ करने से लोकप्रियता घटी। अटल बिहारी वाजपेयी के अस्वस्थ होने के बाद 2009 का चुनाव आडवाणी के नेतृत्व में लड़ा गया। 2009 के चुनाव में हार के बाद बीजेपी में नए नेतृत्व को मौका देने की मांग उठी। 2014 लोकसभा चुनाव से पहले नरेन्द्र मोदी के उभार से आडवाणी पीछे छूटते चले गए। बीजेपी नेताओं और कार्यकर्ताओं ने नरेन्द्र मोदी में चुनाव जितवाने वाली छवि देखी। मोदी की अगुवाई में प्रचंड बहुमत से बीजेपी की सरकार बनने के बाद आडवाणी हाशिए पर चले गए। बीजेपी मार्गदर्शक मंडल के सदस्य बनाए गए लाल कृष्ण आडवाणी राष्ट्रपति पद के लिए भी आडवाणी के नाम पर विचार नहीं किया गया। और अब गांधीनगर से टिकट कटने के बाद माना जा रहा है बीजेपी के इस सियासी दिग्गज का राजनीतिक सफर खत्म हो चुका है।