जस्टिस गांगुली ने टेलिग्राफ़ को दिए इंटरव्यू में कहा, ”अल्पसंख्यकों ने पीढ़ियों से देखा कि वहां एक मस्जिद थी. मस्जिद तोड़ी गई. अब सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के अनुसार वहां एक मंदिर बनेगा. इस फ़ैसले ने मेरे मन में एक शक पैदा किया है. संविधान के एक स्टूडेंट के तौर पर मुझे इसे स्वीकार करने में थोड़ी दिक़्क़त हो रही है.”
72 साल के जस्टिस गांगुली वही हैं जिन्होंने 2012 में टू-जी स्पेक्ट्रम आवंटन मामले में फ़ैसला सुनाया था.
जस्टिस गांगुली ने कहा, ”1856-57 में भले नमाज़ पढ़ने के सबूत न मिले हों लेकिन 1949 से यहां नमाज़ पढ़ी गई है. यह सबूत है. हमारा संविधान जब अस्तित्व में आया तो नमाज़ यहां पढ़ी जा रही थी. एक वैसी जगह जहां नमाज़ पढ़ी गई और अगर उस जगह पर एक मस्जिद थी तो फिर अल्पसंख्यकों को अधिकार है कि वो अपनी धार्मिक स्वतंत्रता का बचाव करें. यह संविधान में लोगों को मौलिक अधिकार मिला हुआ है.”
जस्टिस गांगुली ने कहा, ”इस फ़ैसले के बाद एक मुसलमान क्या सोचेगा? वहां वर्षों से एक मस्जिद थी, जिसे तोड़ दिया गया. अब सुप्रीम कोर्ट ने वहां मंदिर बनाने की अनुमति दे दी है. यह अनुमति इस आधार पर दी गई कि ज़मीन रामलला से जुड़ी थी. सदियों पहले ज़मीन पर मालिकाना हक़ किसका था इसे सुप्रीम कोर्ट तय करेगा? सुप्रीम कोर्ट क्या इस बात को भूल जाएगा कि जब संविधान आया तो वहां एक मस्जिद थी? संविधान में प्रावधान हैं और सुप्रीम कोर्ट की ज़िम्मेदारी है कि वो उसकी रक्षा करे.”
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस गांगुली ने कहा, ”संविधान के अस्तित्व में आने से पहले वहां क्या था इसे तय करना सुप्रीम कोर्ट की ज़िम्मेदारी नहीं है. तब भारत कोई लोकतांत्रिक गणतंत्र नहीं था. तब वहां एक मस्जिद थी, एक मंदिर था, एक बौद्ध स्तूप था, एक चर्च था…इस पर फ़ैसला करने बैठेंगे तो कई मंदिर-मस्जिद और अन्य तरह की संरचनाओं को तोड़ना होगा. हम माइथोलॉजिकल ‘तथ्यों’ के आधार पर आगे नहीं बढ़ सकते.”